
जब सरकार ने कहा, “पर्यटन स्थलों का सौंदर्यीकरण करेंगे,” जनता ने उम्मीद की, “अब शायद वो तालाब चमकेंगे, मंदिर सजेगा, और धामों में रौनक लौटेगी।” लेकिन अफसरों और ठेकेदारों ने समझा – “चलो बैंक अकाउंट की सजावट कर लेते हैं!”
योजनाएं ज़मीन पर नहीं, सिर्फ टेंडर फाइल में उतरीं
गाजीपुर के 5 प्रमुख पर्यटन स्थलों को खूबसूरत बनाने का सपना देखा गया – परमान शाह तालाब, सेवराई का चीरा पोखरा, मां कामाख्या धाम, देवकली स्थल और कीनाराम स्थल देवल।
लेकिन हकीकत ये रही कि ये स्थल अब भी विकास के इंतजार में धूल खा रहे हैं, जबकि ठेकेदारों के खाते नोटों से धूल झाड़ चुके हैं।
32 फर्म, 2.41 करोड़ का ‘भूतिया भुगतान’
अवर अभियंता जितेंद्र सिंह ने ऐसा भुगतान किया कि काम दिखा नहीं, लेकिन पेमेंट शीट पर ‘अद्भुत विकास’ लिखा मिला। कुल 32 फर्मों को बिना चेकिंग, बिना मापदंड और बिना इंसानियत के 2.41 करोड़ रुपये बाँट दिए गए। यानी पर्यटन स्थल नहीं सजे, पर ठेकेदारों की डेस्क पर फॉरेन टूर की ब्रॉशर ज़रूर दिखने लगे।
जब विकास की जगह फाइलें मुस्कुराने लगीं
साल 2017 में FIR दर्ज हुई।
मामला शांत पड़ा रहा क्योंकि सरकारी कागज़ों को कोई जल्दी नहीं होती।
अब जाकर 2025 में लखनऊ से अभियुक्त जितेंद्र सिंह गिरफ्तार हुआ – तब जाकर सिस्टम ने नींद से अंगड़ाई ली।
“मानक पूरे नहीं हुए? कौन पूछता है मानक को?”
जांच में सामने आया कि कार्य ‘आधा-अधूरा’ था, और जो था, वह गुणवत्ता का ‘गंभीर अपमान’ था।
सरकारी सिस्टम ने इतना भी नहीं पूछा कि “भाई, एक बेंच तो लगवा दो!”
लेकिन टेंडर में लिखा गया – “साइट पर गज़ब की ग्रेनाइट, एलईडी लाइट और पाथवे की ब्यूटी।”
यानी “ग्राउंड रियलिटी 0, रिपोर्टिंग स्किल 100।”
गिरफ्तारी का बादशाही असर: अब कुछ और नाम भी लाइन में
जितेंद्र सिंह की गिरफ्तारी के बाद अब ईओडब्ल्यू ठेकेदारों और बाकी अफसरों को रडार पर ला रही है। संभव है, जल्द ही कई ‘विकास प्रेमी’ और ‘बजट बहादुर’ भी सलाखों के पीछे दिखाई दें।
टूरिज़्म की नई परिभाषा
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“साइट पर बेंच नहीं, लेकिन फाइल पर बेंटले ज़रूर दिखा दी गई।”
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“धार्मिक स्थल तो नहीं संवर पाए, पर अफसरों के ड्रॉइंग रूम भगवान के आशीर्वाद से दमक उठे।”
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“गांव के लोग अब भी तालाब के किनारे मिट्टी में बैठते हैं, पर नक्शे में मार्बल दिखता है।”
पर्यटन की बजाय भ्रष्टाचार की यात्रा थी ये
जिन धरोहरों को सजना था, वहाँ अब भी वीरानी है। पर ये घोटाला सिखा गया कि योजनाएं उतनी नहीं चलतीं, जितनी ‘अंदरखाने की यारी’।
जितेंद्र सिंह जैसे लोग हमें याद दिलाते हैं कि –
“अगर सरकारी विकास दिखे, तो दो बार देखो… कहीं वो भी CGI न हो!”